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    मन और उसके प्रति अपनी जिम्मेदारी

    शरीर के साथ मन का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। शरीर स्थूल है मन सूक्ष्म। शरीर की शोभा सफाई और सजावट का तो कई व्यक्ति ध्यान रखते हैं पर उसे निरोग रखने के महत्व को भूले रहते हैं फलस्वरूप भीतर ही भीतर खोखली बनती जाने वाली देह सजाव शृंगर से भी सुन्दर नहीं लग पाती और सौन्दर्य की समस्या उलझी हुई ही पड़ी रहती है। इसी प्रकार आहार−विहार से शरीर को तो निरोग रख लिया जाय पर उस मन को जिसका सारे शरीर पर नियन्त्रण है।उपेक्षा की जाय तो भी काम चलने वाला नहीं है। मन को जीवन का केन्द्र बिन्दु इसलिए कहा गया है कि उसकी समझ जिस दिशा में भी हो जाती है उसी ओर हमारी सारी गतिविधियाँ संचारित होने लगती हैं। किसी बुरे से बुरे प्रसंग की ओर यदि मन रुचि लेने लगे तो वह कार्य परम प्रिय लगने लगता है और कितनी ही हानि उठा कर भी मनुष्य उधर लगा रहता है।

    नशेबाजी, जुआ जैसे अगणित व्यसन हैं जिनकी बुराई जानते हुए भी मनुष्य अपना सब कुछ गँवाता रहता है। मन का झुकाव ऐसी बात है जिसमें लाभ या हानि का बहुत महत्व नहीं रहता, प्रिय लगने वाले प्रसंग के लिए सब कुछ खो देने और बड़े से बड़े कष्ट सहने को भी मनुष्य सहज ही तैयार हो जाता है। फिर यही मन यदि अच्छी दिशा में मुड़ जाय,आत्म-सुधार,आत्म −निर्माण और आत्म−विकास में रुचि लेने लगे तो जीवन में एक चमत्कार ही प्रस्तुत हो सकता है।सामान्य श्रेणी का, नगण्य स्थिति का मनुष्य भी महापुरुषों की श्रेणी में आसानी से पहुँच सकता है। सारी कठिनाई मन को अनुपयुक्त दिशा से उपयुक्त दिशा में मोड़ने की ही है। इस समस्या के हल होने पर मनुष्य सच्चे अर्थों में मनुष्य बनता हुआ देवत्व के लक्ष्य तक सुविधा पूर्वक पहुँच सकता है।

    1 टिप्पणियाँ

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